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NYAYADARSHANA न्यायदर्शन

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जीवेशादिविभेदभकुशलाः सन्तोऽथ सम्तीह चेत् ? का हामिः ? नहि दर्शकेऽपसूषिते जायेत सदर्शनम् । कर्तृत्व प्रतिषिध्यतामपि मतं तुम दुबोधतो यत्रात्मा परमात्मनि प्रणिहितस्तदर्शनं दर्शनम् ॥ १ ॥

इस क्लेश-बहुल संसार में उन्माद या यौवनोन्माद को छोड़कर सुखात्मकता की भावना का उद्घाबक कोई भी तरवान्तर नहीं दीखता। समस्त भूमण्डल के विवेषकों की दृष्टि में यह जगत् यदि दुःखमात्र पूर्ण नहीं तो कम से कम दुःखमय तो अवश्य ही है। भौतिक जगत् में ही अपने विचार की पराकाष्ठा प्राप्त करनेवाले आधिभौतिक दार्शनिक भी इसकी दुःखमयता का अपलाप नहीं करते। जिसे साधारण दृष्टि से सुख समझा जाता है उसमें या उसके परिणाम में भी दुःख ही दुःख है। महाकवि कालिदास के निम्नलिखित श्लोक में सांसारिक सुख में दुःख के सम्पर्क का बहुत ही स्पष्ट पुवम मनोहर वर्णन है :

औत्सुक्य मात्रमवसाययति प्रतिष्ठा क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेनम् ।

नातिश्रमापनयनाय न च श्रमाय राज्यं स्वहस्तटतदण्ड मिवातपत्रम् ॥ भारतीय दार्शनिक परम्परा में इस जगत् की दुःखमयता तो और भी स्पष्टतर है। भगवान् बुद्ध ने भी अपने चार आर्यसत्यों में “सर्व दुःखं दुःखम्” को अभ्यतम

माना है | जन-साधारण की स्थिति पर दृष्टिपात करने से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर इस दुःख के दो ही कारण प्रतीत होते हैं अप्राप्ति तथा’ अज्ञान । ‘भोजन करने से तृप्ति होती है’, ‘स्त्रीसम्पर्क से कामवासना की शान्ति होती है’ इत्यादि लौकिक ज्ञान के रहने पर भी यदि भोजन तथा स्त्री आदि की प्राप्ति नहीं होती तो लोगों को दुःख की कटु अनुभूति होती है। इसी प्रकार रोग की चिकित्सा विधि एवम् उपयुक्त ओषधि के ज्ञान के अभाव में भी दुःखानुभूति स्वाभाविक है। यद्यपि आसक्ति को भी सांसारिक दुःख का अभ्यतम कारण माना जाता है तथापि मेरी दृष्टि में इसे स्वतन्त्र दुःखमूल मानना उचित नहीं है,

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