Katyayanshrautra Sutra Vol.1-3 कात्यायनश्रौत्र सूत्र खंड 1-3
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भारतीय ज्ञानविज्ञान का मूलस्रोत वेद हैं, आर्ष एवं अपौरुषेय ज्ञानगङ्गा द्युलोक से प्रवाहित होती हुई, इस लोक में ऋषियों की अमोघ दृष्टि से प्रगट हुई है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों से असाध्य लेकिन एकमात्र ऋषिदृष्टियों से साध्य ज्ञान, इस जगत् के सृष्टि-स्थिति-लयों के कारणभूत वेदतत्त्व ही ब्रह्माण्ड का अवलम्बन है, उसको उपदेशों के माध्यम से लोक में अवतरित किया। शिष्यों के लिये उपदिष्ट उन उपदेशों के संग्रह को जनसामान्य वेदों के नाम से जानते हैं। तभी यास्क कहते हैं—“साक्षात्कृतधर्म्माणो ऋषयो बभुबुः । तेभ्य अवरेभ्य असाक्षात्कृत धर्मभ्यः उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः । उपदेशाय ग्लायन्तो भिल्वं ग्रहणायेदं ग्रन्थं समाम्नासिषुः वेदञ्च वेदाङ्गानि च” निरुक्त १.६.२०
परमतत्त्व को दर्शन करने के कारण ही ऋषि कहलाते हैं और जिन्होंने उस तत्त्व का दर्शन (ज्ञान प्राप्त) नहीं किया हैं, उन्हें ऋक्षियों ने अपने उपदेशों के माध्यम से प्रदान किया। जो इन उपदेशों को ग्रहण करने में असमर्थ होते थे, उनके लिए ही ऋषि के उपदेशों का एकत्र संग्रह किया गया, जिसे वेद कहते हैं । वेदों के साथ वेदाङ्गों के उपदेश का अभिप्राय है कि ऋषिसम्मत वेदार्थ के ग्रहण में तथा तदितर अर्थ के परित्याग में वेदाङ्गों की भूमिका अहम् है। आज जो अनर्थकारक वेदार्थ का ग्रहण किया जाता है, उसमें कारण है—वेदाङ्गों की सहायता न लेना।
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