YAJNAVALYASMRTI याज्ञवल्यस्मृति
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इस अमर आत्मा को जन्म-जन्मान्तर तक अत्यन्त कठोर तपस्या करने के । बाद मानव शरीर में प्रवेश और उस शरीर के माध्यम से अपने को इस प्रपश्च से विमुक्त करने का अवसर प्राप्त होता है परन्तु खेद का विषय है कि मानव शरीर में गर्भाशय से निःसरण के साथ-साथ ही इस ( आत्मा ) की कर्त्तव्य बुद्धि विस्मृति के गर्त में विलीन हो जाती है । जिस उद्देश्य से यह आत्मा मानव शरीर के अधिगम के लिए कठोर प्रयास करती रहती है उस उद्देश्य की पूर्ति आकाश-पुष्पायित सी हो जाती है । इसी कारण से जन्म लेते ही जीवात्मा को पुनः रोना ही पड़ता है । अपने कर्त्तव्य के विस्मरण के कारण जीवात्मा के विलाप का निम्न लिखित पद्य में बहुत ही मार्मिक रूप में प्रतिपादन किया गया है-
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जातो मृतश्च कतिधा न कति स्तनानां पीतम्पयो न कलिताः कति मातरो न । उत्पत्य बन्ध- विधुतावधुना यतिष्ये इत्यस्य विप्लवमुपैति बहिर्मनीषा ॥
कर्म चक्र में इस प्रकार अनादि काल से परिभ्रमण-शील जीवात्मा की उपर्युक्त परिदेवना से आई हृदय वाले परमर्षियों ने अपने ज्ञान-दीप में प्रतिभासमान परम्परागत अखण्ड ज्ञान राशि स्वरूप वेद को जीवात्मा के कर्त्तव्य के परिज्ञान के लिए अभिव्यक्त किया । परन्तु वेद भी कुछ ही विवेकी पुरुषों के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ न कि सर्व साधारण के लिए । अतः करुणा-प्रवण मनु आदि महर्षियों ने अपने वैदिक विज्ञान को सर्व साधारणोपयोगी बनाने के लिए धर्मशास्त्र का निर्माण किया । इस धर्मशास्त्र में धर्म शासक ऋषि के द्वारा प्रायेण वैदिक ज्ञान की ही स्मृति होने के कारण इसे ( धर्म-शास्त्र को ) स्मृति-शब्द से भी अभिहित किया जाता है (धर्मशास्त्रन्तु वै स्मृति:- मनु० २।१० ) ।
यद्यपि स्मृति ग्रन्थों में कुछ ऐसे भी तत्व हैं जो वर्तमान वेद में उपलब्ध नहीं होते तथाऽपि उन तत्वों के वैदिक ज्ञान पर ही निर्भर होने का अनुमान किया जाता है ।’ यद्यपि धर्म के प्रतिष्ठित व्याख्याता जैमिनि ने यह भी माना है
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