Sanskrit Sahitya Mein Manav moolya Parampara (Bhartiya Gyan Parampara vol.1) संस्कृत साहित्य में मानव मूल परम्परा (भारतीय ज्ञान परम्परा खंड 1)
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पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व का एकमात्र कारण यदि कोई है तो वह है मानवीय मूल्य। बुद्धिकौशल एवं सामर्थ्य ने जहाँ एक ओर मानव को पृथ्वी का सबसे कुशल प्राणी घोषित किया है, वहीं दूसरी ओर मानव के असीमित विकास की लालसा ने पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया है। भारत के प्राचीन वैभव ने प्रगति के मानदण्डों में सर्वप्रथम सह अस्तित्व, सद्भाव, सहयोग एवं विश्वबन्धुत्व को स्थान दिया। यही कारण है कि समस्त संस्कृत साहित्य में मानवीय मूल्यों की स्पष्ट छवि दिखाई देती
‘मनुर्भव’, ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’, ‘संगच्छध्वं संवदध्वम्’, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसे आर्षवाक्यों ने स्व से पूर्व पर का चिन्तन किया। भारतीय ज्ञान परम्परा का मानवीय पक्ष व्यापकता, सहजता और वैश्विकता को समेटे हुए है। संस्कृत साहित्य में मानवमूल्य परम्परा की प्रवाहित हो रही इसी अजस्र धारा को एक सूत्र में पिरोने का अथक प्रयत्न किया है संस्कृतजगत् के अनुसन्धाताओं ने। यह पुस्तक भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त ऐसे ही शोधपरक आलेखों को आपके समक्ष लाने का एक प्रयास है। आइए, इस पुस्तक के माध्यम से मानवीय मूल्यों की अप्रतिम परम्परा के साक्षी बनकर संस्कृत साहित्य की अपार सम्भावनाओं को अनुभूत करें।
Weight | 700 kg |
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Dimensions | 22 × 14 × 3 cm |
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