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Vaidik Nari

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वेदों में नारी का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। पुरुष और नारी समाज-रूप और राष्ट्र रूप रथ के दो चक्र हैं । जैसे एक चक्र से रथ नहीं चल सकता, ऐसे ही अकेले पुरुष या अकेली नारी से समाज और राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता । नर और नारी कहीं भाई और बहिन के रूप में, कहीं पुत्र और माता के रूप में, कहीं पति और पत्नी के रूप में, कहीं ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी के रूप में, कहीं आचार्य और आचार्या के रूप में, कहीं प्रचारक और प्रचारिका के रूप में, कहीं लेखक और लेखिका के रूप में समाज में अपने-अपने कार्यकलापों को करते दृष्टिगोचर होते हैं। प्रत्येक क्षेत्र में एक इकाई, दूसरी ईकाई की पूरक होती है। ; पुरुष द्यौलोक है, तो नारी पृथिवी है; दोनों के सामञ्जस्य से ही सौर जगत् सप्राण बना है। पुरुष साम है, तो नारी ऋक् है; दोनों के सामञ्जस्य से ही सृष्टि का सामगान होता है। पुरुष वीणा-दण्ड है, तो नारी वीणा – तन्त्री है। दोनों के सामञ्जस्य से ही जीवन के सङ्गीत की झङ्कार निःसृत होती है। पुरुष नदी का एक तट है, तो नारी दूसरा तट है; दोनों के बीच में ही वैयक्तिक और सामाजिक विकास की धारा बहती है। पुरुष दिन है, तो नारी रजनी है। पुरुष प्रभात है, तो नारी उषा है । पुरुष मेघ है, तो नारी विद्युत् है । पुरुष अग्नि है, तो नारी ज्वाला है। पुरुष आदित्य है, तो नारी प्रभा है। पुरुष तरु है, तो नारी लता है। पुरुष फूल है, तो नारी पङ्गुरी है। पुरुष धर्म है, तो नारी धीरता है। पुरुष सत्य है, तो नारी श्रद्धा है। पुरुष कर्म है, तो नारी विद्या है। पुरुष सत्त्व है, तो नारी सेवा है। पुरुष अभिमान है, तो नारी क्षमा है। दोनों के सामञ्जस्य में ही पूर्णता है

Weight 400 kg

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