Kaushitaki Grhya Sutra कौषीतकिगृह्यसूत्र
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ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों में यज्ञ-यागादि का विधान है उनमें धार्मिक क्रियाओं का भी उल्लेख है जो अव्यवस्थित तथा असूत्रित रूप में पड़ा था। उनको क्रमबद्ध रूप में रखने का कार्य इन्हीं गृह्यसूत्रों द्वारा सम्पन्न हुआ। गृह्यसूत्र अपने समय के सभी प्रकार के प्रचलनों, संस्कारों, गृह्य क्रिया-कलापों तथा प्रथाओं के विषय में निर्देश तो देते ही हैं, इसके साथ ही यह अपने समय के सामाजिक जन-जीवन का भी सङ्केत कर देते हैं । इन सूत्रों में प्राचीन भारतीय समाज का सच्चा चित्र प्रतिबिम्बित होता है। भारत के अतीत की समुज्ज्वल संस्कृति का यदि दर्शन करना हो तो इन धार्मिक सूत्रों का अध्ययन अपेक्षित है; क्योंकि जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है, इसकी प्राप्ति की साधना का उपकरण, संस्कारों तथा यज्ञों का उल्लेख इन साहित्यों में प्रचुर रूप में मिलता है। ये सूत्र वेदार्थ की व्याख्या करने में बड़े सशक्त हैं; क्योंकि यज्ञादि के लिए इनमें नियमों का तो निर्देश है ही, इसके अतिरिक्त ये मन्त्रों का उचित विनियोग लाते हैं । यज्ञों तथा संस्कारों में स्थल-स्थल पर वेदों के मन्त्रों के उचित प्रयोग होने से उस स्थल – विशेष के द्वारा मन्त्रों का अर्थ स्पष्ट हो जाता है । वेदों की संहिताओं से यजुष् तथा ऋचाओं को लेकर यज्ञ की सङ्गति बैठाना इनका मुख्य उद्देश्य है।
ये गृह्यसूत्र मुख्य रूप से दो आश्रमों – ब्रह्मचर्य और गृहस्थ का ही उल्लेख करते हैं । जिन मनोबल एवं भावुकता के साथ ये इन दोनों आश्रमों के वर्णन में रमे हैं तथा जैसा चित्र खींचे हैं इनका वैसा अन्यत्र चित्र मिलना असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है । गृह्यसूत्र व्यक्ति को कर्म की ओर प्रेरित करते हैं। कर्म के द्वारा ही महापुरुषों ने जीवन में सिद्धि को प्राप्त किया है। ब्रह्मचारी बारह वर्ष, चौबीस वर्ष, अड़तालीस वर्ष तक का तपोमय जीवन एवं आश्रम के सभी कार्यों गुरु के गायों की सेवा, सायं प्रातः कालीन सन्ध्या, – समिधा-आहरण, गुरु के लिए जलपूर्ण वट का आनयन, उनके लिए भिक्षाचरण, शयनकाल में उनके दोनों चरणों का प्रक्षालन एवं अपना प्राणोत्सर्ग तक करके गुरु के कठिन से कठिन कार्यों का सम्पादन करने की आकाङ्क्षा – ये सभी कृत्य एक प्रकार से जीवन को सफल बनाने के लिए विद्यार्थी को कठोर कर्म की ओर प्रवृत्त होने के लिए निर्देश देते हैं ।
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